साधकों के लिए आवश्यक है, सादगी और सरलता। प्रतिष्ठा की चाह उनमें नहीं होनी चाहिए।
"नीच न सोहत मंच पर, महि पर सोहत धीर।
काक न सोहत पाक पर, हंस सजे सर तीर।।"
सद्गुणी व्यक्ति नीचे बैठे रहने पर भी सुशोभित होते हैं, आदर पाते हैं। परन्तु जो सदाचरण-हीन है, वह ऊँचे आसन पर बैठकर भी शोभाहीन ही होता है। जिस तरह कागा के ऊँचे भवन पर बैठ जाने से शोभा नहीं देता है। वह काँव-काँव ही करता रहता है और लोग उसे भगा देते हैं। दूसरी ओर हंस मानसरोवर के किनारे नीचे बैठा रहता है, तब भी वह शोभता है। वह मीती खाता है और दूध में पानी मिला होने पर भी केवल दूध पीता है, पानी को छोड़ देता है। यह संसार जड़-चेतन मिश्रित है, गुण-दोष मिश्रित है। जो ज्ञानवान होते हैं, संतजन होते हैं, वे दूध लेते हैं और पानी छोड़ देते हैं यानी सत्य को ग्रहण करते हैं और असत्य को त्याग देते हैं।
जल से कमल की उत्पत्ति होती है, पर जल उसे डूबा नहीं सकता है। जल ऊपर उठकर डूबाना भी चाहता है तो कमल ऊपर उठता जाता है और पूरी तरह से खिलकर जल की शोभा को और बढ़ाता है। इसी तरह संसार में रहना चाहिए, दूसरे को अपने सद्गुणों से गुणान्वित करते रहें।
इंसान के लिए कम खाना और गम खाना हितकर है।'
'मन महीन कर लीजिए, तब पिउ आवै हाथ।'
अपने को छोटा बनाइये, अहंकार को त्याग दीजिए, तभी परमात्मा को पा सकते हैं।
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