साधक स्थूल के केन्द्र पर शब्द को पकड़ता है, उससे खिंचकर सूक्ष्म के केन्द्र पर जाता है। वहाँ केन्द्रीय शब्द को पकड़कर कारण, महाकारण के केन्द्र पर, महाकारण के केन्द्रीय शब्द को पकड़कर कैवल्य के केंद्र पर पहुँच जाता है, वहाँ का शब्द परम प्रभु परमात्मा तक पहुँचा देता है। फिर...
"निज घर में निज प्रभु को पावै, अति हुलसावै ना।
'मेँहीँ' अस गुरु संत उक्ति, यम-त्रास मिटावै ना।।"
अपने घर में अपने प्रभु को पा लेता है और सारे दुःखों से छूट जाता है।
यह अपने अंदर का रास्ता है, बाहर का नहीं। यह मजहब सीना है, सफीना नहीं। यह दिल का दर्द है, कथनी में नहीं आता। वस्तुतः यह करने की चीज है।
जिनको सच्चे गुरु मिले हैं, सच्ची सद्युक्ति मिली हुई है और जो सदाचार समन्वित होकर सच्ची साधना कार्य करते हैं, उनको अनुभूतियाँ होती हैं और अंत में परम प्रभु परमात्मा को प्राप्त कर अपना परम कल्याण कर लेता है।
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