पापकर्म मत करो | शुभ-कर्म में ना देरी करो।
हमारा मानवतन कर्म प्रधान है। प्रत्येक मानव अपने कर्म फल के अनुरूप ही सुख-दुख भोगता है। और हमारे जीवन में शुभ या अशुभ कर्म कराने का अगुआ हमारा मन है। मन हमारा प्रधान सेनापति बना हुआ है। जब कोई दूषित मन से वचन बोलता है या पाप कर्म करता है, तो दुःख उसका पीछा उसी तरह करता है, जिस तरह बैलगाड़ी का पहिया (चक्का) गाड़ी खींचनेवाले बैलों के पैर का।
मानव तीन तरह से कर्म करता है- मन से, वचन से और क्रिया से।
मनुष्य द्वारा किया गया कर्म उसे कई गुणा फल देता है, जैसे खेतों में बोया गया बीज कई गुणा होकर (उपज कर) मिलता है; कर्म चाहे हमारा शुभ (पुण्य कर्म) हो या अशुभ (पाप कर्म)। शुभ-कर्म का फल सुख और पापकर्म का फल दुःख होता है। लेकिन दुःख लोग भोगना नहीं चाहते हैं। इसलिए संत-महापुरुष कहते हैं कि दुःख नहीं भोगना है तो पापकर्म मत करो। आग में अंगुली डालो और जलो नहीं, ये नहीं हो सकता है। कर्मानुसार फल तो मिलेगा ही, चाहे आज मिले या कल। इसलिए पापकर्म तो कभी भी किसी को भी करना ही नहीं चाहिए। हाँ शुभ-कर्म (पुण्य कर्म) अवश्य ही सभी कोई करते रहें, स्वभाविक ही कई गुणा होकर आपको मिलेगा। अतः सही मायने में जीवन जीने के तरीके को अपनाएं; ईश्वर की भक्ति का नियम अपनाएं, इसे जीवनपर्यन्त नियमित रूप से करते रहें, शुभ-कर्म करें। पंच पाप वृत्तियों से दूर रहें। सद्वृति को जीवन में स्थान दें। जीवन उत्तम व कल्याणमय होगा। सुख ही सुख होगा।
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