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रामचरितमानस | रामचरितमानस पाठ 1 | बालकाण्ड | रामचरितमानस रामायण


रामचरितमानस-सार सटीक
प्रथम सोपान, बालकाण्ड 

बंदऊँ गुरु पद-कंज, कृपा-सिंधु नर-रुप हरि। 
महामोह तमपुंज, जासु बचन रबि कर निकर।। 

(कृपा के समुद्र मनुष्य के रूप में ईश्वर जिनका वचन महामोह- रूप अंधकार राशि को (नष्ट करने के लिए) सूर्य की किरणों का समूह है, ऐसे गुरु के चरण कमल को मैं बार-बार प्रणाम करता हूँ।)

बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा।
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।।
( मैं गुरु महाराज के चरण कमल की रज को प्रणाम करता हूँ , जो अच्छी रूचि और प्रेम को उत्पन्न करने वाली, सुगंधित और सार-सहित है।)

(चरण-रज में चरणों की चेतन वृत्ति गर्मी रूप से स्वभावतः समाई होती है। यही चैतन्य वृत्ति चरण रज में सार है। जो पुरुष जिन गुणों वाले होते हैं, उनकी चेतन वृत्ति और गर्मी उन्हीं गुणों का रूप होती है। भक्तिवन्त, योगी, ज्ञानी और पवित्र आत्मा गुरु की चरण रज में उनका चैतन्य रूपी सार भगवत् भक्ति में सुरुचि और प्रेम उत्पन्न करता है। तथा श्रद्धालु गुरु-भक्तों को वह रज सुगन्धित भी जान पड़ती हैं। चरण-रज तीन तरह के होते हैं- 
1. मिट्टी-रूप, 
2. स्वभाविक आभारूप और 
3. ब्रह्म-ज्योतिरूप। 
मिट्टीरूप चरण रज सर्वजन को ज्ञात है। यह स्थूल शरीर के ऊपर लगाने की चीज है। प्रत्येक मनुष्य के शरीर के चारों तरफ शरीर से निकलती हुई नैसर्गिक आभा (वा ज्योति का मंडल) शरीर को घेरे हुए रहती है। यह बात अब आधुनिक विज्ञान से भी छुपी हुई नहीं है। आभायुक्त गुरु मूर्ति के मानस-ध्यान का अभ्यास करने से आभायुक्त गुरु मूर्ति का दर्शन अभ्यासी श्रद्धालु भक्तों को अंतर में मिलता है।

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