Search

संतवाणी | संतवाणियों के अनुकूल चलें | संतों का भेद और पंडितों का वेद |

कोई भी मनुष्य भक्ति के लिए, वर्णभेद से, जाति-भेद से या देश-भेद से कोई योग्य है वा कोई इसके अयोग्य नहीं है; किन्तु हाँ, आचरण-भेद से योग्य वा अयोग्य अवश्य है। 

यदि मनुष्य में 'संतों का भेद और पंडितों का वेद' दोनों है, तो सोने में सुगंध है। 

भक्ति करने वाले सब भेषों में रहकर भजन कर सकते हैं, नहीं करने वाले किसी भेष में भी रहकर नहीं कर सकते हैं। जो इन्द्रियों के स्वाद में नहीं फंसता वह गृहस्थ होते हुए भी योगी हैं।

कोई भी मनुष्य अच्छा है या बुरा यह उनके कर्म से पता चलता है, उनका रहन-सहन, बोली, व्यवहार कैसा है, इसी से उनके भक्त और अभक्त होने का पता चलता है। चाहे उनका भेष-भूषा कोई भी हो।

प्रत्येक मनुष्य को भीतर से धार्मिक होना चाहिए। मानव शरीर में रहते हुए मानवोचित कर्म ही करना चाहिए। अन्यथा उनमें और अन्य हिंसक योनि वाले शरीरधारियों में क्या अन्तर रह जाएगा। 

धर्म परिवर्तन नहीं, मन परिवर्तन होना चाहिए। 

No comments:

Post a Comment

बहुत समय पड़ा है, यही वहम सबसे बड़ा है |

"बहुत समय पड़ा है, यही वहम सबसे बड़ा है।" यह ईश्वर भक्ति के लिए है।  क्योंकि आत्मा का जीवन अनन्त है। इस शरीर की आयु कु...