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बहुत समय पड़ा है, यही वहम सबसे बड़ा है |

"बहुत समय पड़ा है, यही वहम सबसे बड़ा है।"
यह ईश्वर भक्ति के लिए है। 
क्योंकि आत्मा का जीवन अनन्त है। इस शरीर की आयु कुछेक वर्ष ही है। 
भक्ति सिर्फ मनुष्य शरीर में ही रहकर हो सकती है। अन्य किसी शरीर में नहीं। 
जीवात्मा परमात्मा का ही अंश है, इसे परमात्मा में मिलाने का एकमात्र रास्ता ईश्वर भक्ति है जो मनुष्य शरीर से ही होगा। अभी हमसब मनुष्य शरीर में हैं इस कार्य को कर लेना परमावश्यक है। नहीं करने से बड़ा भारी नुकसान है चौरासी लाख योनियों की भटकन में जाना होगा। गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में कहा है-
"बड़े भाग मानुष तनु पावा, सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि  गावा।"
बड़े भाग्य से मनुष्य का शरीर मिला है, समय रहते इसका सदुपयोग कर इस कार्य को कर लेना चाहिए।
सांसारिक कार्यो के लिए इंसान वैसे ही जी-तोड़ मेहनत करते ही रहता है और ज्यादातर सांसारिक कार्यो में ही लगा रहता है। संसार में आप अपना कर्म कर सकते हैं फल आपके पूर्व जन्मकृत कर्म पर निर्भर करता है, अतः वर्तमान में अपना कर्म करें फल ईश्वर पर छोड़ें। अगर इंसान का पूर्व कर्म कृत फल अच्छा है और वर्तमान सत-पथ है तो भविष्य भी अच्छा ही होगा। इसलिए अच्छा करें, अच्छे की आशा रखें, भविष्य सोच कर वर्तमान न बिगाडें। सिर्फ सांसारिक जीवन के लिए न सोचें इसके बाद का जीवन बहुत बड़ा है और उसको करने यही मौका है। जय श्रीराम! जय श्रीकृष्णा!🙏🙏

कैसे उतरै पार | Kaise Utrai Paar | संतसेवी जी महाराज | Santsevi Baba Pravachan

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सर्प ऊपर से देखने में बहुत ही सुंदर, सतेज और मनोहर हार-जैसा प्रतीत होता है; किंतु उसकी भयंकरता उसके अन्तस्तल में छिपी रहती है। उसका स्पर्श करने वाला प्राणी तड़प-तड़पकर अपनी प्यारी जान गँवा देता है। ठीक इसी भाँति संसार का बहिरंग भी अत्यंत आकर्षक, सुखद एवं सुहावना प्रतीत होता है और इसमें आसक्त होनेवाले, इसको पकड़ने वाले की भी वही उपर्युक्त गति होती है। जैसे पिपासित अज्ञ कुरंग भ्रम-जल को सत्य मान उसे पीने की इच्छा से व्याकुल होकर दौड़ता है और जलाभाव में श्रान्त-क्लान्त एवं निराश होकर उस बालुकामयी भूमि में अपने प्राण गँवाता है, उसी प्रकार संसारासक्त अज्ञजन सुख-प्राप्ति की अभीप्सा से सांसारिक रूप-रसादि को पकड़ने के लिए उन विषयों की ओर दौड़ता है और परिणामस्वरुप अतृप्त रहकर वह अकाल में ही कालकवलित होता है। इस कारूणिक दृश्य को देखकर संतों ने बारंबार पुकार कर कहा- ऐ संसारी जीव! जागतिक भ्रम-सुख के प्रलोभनों में पड़कर तू अपना सत्यानाश मत कर। आँखों को खोल, जरा विचारकर देख, इन विषयों के पीछे पड़कर तूने अपना सर्वनाश कर डाला; किन्तु इतने पर भी अब तक क्या तू पूर्ण संतुष्ट और सुखी हुआ? यदि नहीं, तो अरे मूर्ख! अब भी चेत। जो कुछ तेरी जीवन-पूँजी बची है, उसकी रक्षा कर। साथ ही संत सद्गुरु की सीख मान, उसकी लीक पर चल। क्या तू नहीं जानता कि यह संसार दुस्तर समुद्र है और उसमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, हिंसादि की अविराम तरंगें उठती रहती हैं? इनसे अपना बचाव कर, अपनी पलकों को खोल। ॠषि वाक्य को मान, संत सद्गुरु की शरण ले और अपना परम कल्याण कर। 
राधास्वामी साहब ने भवसागर की गम्भीरता बताकर इससे पार होने के लिए सद्गुरु की उपादेयता बताई है-
भवसागर धारा अगम, खेवटिया गुरु पूर।
नाव बनाई शब्द की, चढ़ बैठे कोई सूर।।
भव सागर है गहिरा भारी।
गुरु बिन को जाय सकै पारी।।
-महर्षि संतसेवी परमहंस जी महाराज 
(प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता)
🙏🌼🌹।। जय गुरु ।।🌹🌼🙏
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वह आदमी नहीं, जिसमें आदमियत नहीं |

"जफर उनको न आदमी कहिएगा,
चाहे वह कितना ही शाहेफमौज का हो।

जिसको ऐश में यादे खुदा नहीं, 
और तैश में खौफे खुदा नहीं।।"
वह आदमी नहीं, जिसमें आदमियत नहीं। आदमी

 का शरीर मिला हुआ रूप है, लेकिन आदमियत

 नहीं है, तो वह किस काम का हुआ! मनुष्य बन गए

 तो मनुष्यता होनी चाहिए, मानवोचित कर्तव्य होना

 चाहिए, सार-असार का ज्ञान होना चाहिए, सत्य-असत्य 

का विवेक होना चाहिए, तदनुकूल हमारा आचरण होना चाहिए।

"भूले मन को समझाय लीजिए,

सत्संग के बीच में आय के जी।

अबकी बार नहीं चूकना, मानुष तन पाय के जी।।"

इस भूले-भटके मन को सत्संग में आकर समझाइए,

 बुझाइए। अगर सत्संग में आकर के भी अपना

 सुधार नहीं कर सके, तो कबीर साहब ने कहा- 

'सत्संगति सुधारा नहीं ताका बड़ा अभाग।' 

सत्संग की बातों को सुन करके जब कोई अपने को

 सुधरेगा, तो कभी-न-कभी उसका उद्धार अवश्य होगा। 

जो रोगी के मन भावै, सो वैदा फरमावै | संतसेवी जी महाराज | संतमत-सत्संग |


🙏🌹ॐ श्री सद्गुरवे नमः🌹🙏
"सचिव बैद गुरु तिनि जौं, प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर, होइ बेगहि नास।।" 
'जो रोगी के मन भावै, सो वैदा फरमावै।'  
इस युक्ति के अनुसार जो गुरु चेले की हाँ में हाँ मिलाता है, वह सच्चा गुरु नहीं है और उस गुरु से चेले का उपकार या उद्धार नहीं हो सकता। मंत्री राजा को उचित सलाह देने वाले होते हैं। अगर मंत्री उचित परामर्श नहीं दें, तो वह राज्य टिकता नहीं है। राजा ने जैसा कह दिया, मंत्री ने हाँ-में-हाँ मिला दिया, यह उचित नहीं  मंत्री वे होते हैं, जो मंत्रणा करते हैं, सोचते-विचारते हैं और यथार्थ विचार देते हैं। रोगी जो खाने के लिए माँगे और वह भोजन पथ्यानुकूल नहीं हो, फिर भी खाने के लिए यदि वैद्य वह भोजन उसको दे दे, तो रोग बढ़ेगा और रोगी मरेगा। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि सचिव हों, वैद्य हों या गुरुदेव हों; अगर भय के कारण या कुछ पाने की आशा से उचित बात नहीं कहते हैं, तो न वह राज्य रहेगा, न वह धर्म रहेगा और न वह रोगी व्यक्ति रहेगा। -महर्षि संतसेवी-प्रवचन पीयूष 
(प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम)
🙏🌹🌾 जय गुरु 🌾🌹🙏

विश्वकर्मा पूजा | सृष्टि के रचयिता परम प्रभु परमात्मा | आध्यात्मिक ज्ञान

सृष्टि के रचयिता परम प्रभु परमात्मा हैं | 
आज विश्वकर्मा पूजा का दिन है, जानकर प्रसन्नता हुई। मेरे विचार में आज ही क्यों, विश्वकर्मा पूजा तो प्रतिदिन होना चाहिए और जितना हो सके, अधिक-से-अधिक अधिक करना चाहिए। 'विश्वकर्मा' शब्द के अनेक अर्थों में एक अर्थ सृष्टि का 'रचयिता' भी होता है। सृष्टि के रचयिता परम प्रभु परमात्मा हैं। परमात्मा की सृष्टि में जिस ओर दृष्टि कीजिए, उनकी अनंतता का बोध होगा। उनकी महिमा अपरंपार है।

'हे परमात्मा! आपने मुझको चौरासी लाख प्रकार के कपड़ों को पहना कर अपने रंगमंच पर मुझसे नृत्य करवाया है। अगर आप मेरे नृत्य से प्रसन्न हैं, तो मुझे मुक्ति का वरदान दीजिए और यदि अप्रसन्न हैं, तो कह दीजिए कि तुम मेरे रंगमंच पर कभी मत आना।'

आज इससे लड़ाई, कल उससे झगड़ा, इससे राग, उससे रोष; जिसके हृदय में राग की आग जल रही है, वह कहीं भी भागकर क्यों ना जाए; लेकिन शांति नहीं मिलेगी। 

वैर से वैर कभी शांत नहीं होता। वैर अवैर से शांत होता है। इसलिए वैर को वैर से नहीं, अवैर से यानी मित्रता से हम जीतकर शांति लाभ कर सकते हैं।


शुभ कर्म में ना देरी करो | स्वाभाविक ही कई गुणा होकर मिलेगा | सुख ही सुख होगा |

पापकर्म मत करो | शुभ-कर्म में ना देरी करो। 
हमारा मानवतन कर्म प्रधान है।  प्रत्येक मानव अपने कर्म फल के अनुरूप ही सुख-दुख भोगता है। और हमारे जीवन में शुभ या अशुभ कर्म कराने का अगुआ हमारा मन है। मन हमारा प्रधान सेनापति बना हुआ है। जब कोई दूषित मन से वचन बोलता है या पाप कर्म करता है, तो दुःख उसका पीछा उसी तरह करता है, जिस तरह बैलगाड़ी का पहिया (चक्का) गाड़ी खींचनेवाले बैलों के पैर का। 
मानव तीन तरह से कर्म करता है- मन से, वचन से और क्रिया से। 
मनुष्य द्वारा किया गया कर्म उसे कई गुणा फल देता है, जैसे खेतों में बोया गया बीज कई गुणा होकर (उपज कर) मिलता है; कर्म चाहे हमारा शुभ (पुण्य कर्म) हो या अशुभ (पाप कर्म)। शुभ-कर्म का फल सुख और पापकर्म का फल दुःख होता है। लेकिन दुःख लोग भोगना नहीं चाहते हैं। इसलिए संत-महापुरुष कहते हैं कि दुःख नहीं भोगना है तो पापकर्म मत करो। आग में अंगुली डालो और जलो नहीं, ये नहीं हो सकता है। कर्मानुसार फल तो मिलेगा ही, चाहे आज मिले या कल। इसलिए पापकर्म तो कभी भी किसी को भी करना ही नहीं चाहिए। हाँ शुभ-कर्म (पुण्य कर्म) अवश्य ही सभी कोई करते रहें, स्वभाविक ही कई गुणा होकर आपको मिलेगा। अतः सही मायने में जीवन जीने के तरीके को अपनाएं; ईश्वर की भक्ति का नियम अपनाएं, इसे जीवनपर्यन्त नियमित रूप से करते रहें, शुभ-कर्म करें। पंच पाप वृत्तियों से दूर रहें। सद्वृति को जीवन में स्थान दें। जीवन उत्तम व कल्याणमय होगा। सुख ही सुख होगा।

माली आवत देखकर, कलियाँ करै पुकार | एक माली फुलवारी में खिले-खिले फूलों को तोड़ रहा था |

एक माली फुलवारी में खिले-खिले फूलों को तोड़ रहा था। 
फूलों को तोड़ते देखकर कलियाँ चीत्कार कर रो उठी; तो माली ने पूछा- 'मुकुले'! मैं खिले हुए फूलों को तोड़ रहा हूँ, तुमलोगों को तो कुछ नहीं कर रहा हूँ, फिर दुखी होकर क्यों रो रही हो? कलियों ने उत्तर दिया- भाई माली! हमसब अभी के लिए नहीं भविष्य यानी कल के लिए रो रहे हैं। अभी हम मुकुल रूप में हैं कल फूल होकर खिलेंगे, तब माली भाई! तब तुम हमारी डाली खाली कर अपनी डाली। भर लोगे।

संत कबीर साहब की वाणी है-
"माली आवत देखकर, कलियाँ करै पुकार।
फूली-फूली चुनि लई, काल्ह हमारी बार।।"
वास्तव में संसार एक फुलवारी है। काल माली के रूप में जीव रूपी फूलों को तोड़ता है। गुरु नानक देव जी कहते हैं- मानव की लगायी फुलवारी में माली फूले हुए फूलों को ही तोड़ता है, किन्तु परमात्मा कृत संसार रूपी फुलवारी में निष्ठुर काल रूप माली बाल, यौवन, जरा (वृद्ध) कुछ नहीं देखता, सबका संहार करता है।

रामचरितमानस | रामचरितमानस पाठ 1 | बालकाण्ड | रामचरितमानस रामायण


रामचरितमानस-सार सटीक
प्रथम सोपान, बालकाण्ड 

बंदऊँ गुरु पद-कंज, कृपा-सिंधु नर-रुप हरि। 
महामोह तमपुंज, जासु बचन रबि कर निकर।। 

(कृपा के समुद्र मनुष्य के रूप में ईश्वर जिनका वचन महामोह- रूप अंधकार राशि को (नष्ट करने के लिए) सूर्य की किरणों का समूह है, ऐसे गुरु के चरण कमल को मैं बार-बार प्रणाम करता हूँ।)

बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा।
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।।
( मैं गुरु महाराज के चरण कमल की रज को प्रणाम करता हूँ , जो अच्छी रूचि और प्रेम को उत्पन्न करने वाली, सुगंधित और सार-सहित है।)

(चरण-रज में चरणों की चेतन वृत्ति गर्मी रूप से स्वभावतः समाई होती है। यही चैतन्य वृत्ति चरण रज में सार है। जो पुरुष जिन गुणों वाले होते हैं, उनकी चेतन वृत्ति और गर्मी उन्हीं गुणों का रूप होती है। भक्तिवन्त, योगी, ज्ञानी और पवित्र आत्मा गुरु की चरण रज में उनका चैतन्य रूपी सार भगवत् भक्ति में सुरुचि और प्रेम उत्पन्न करता है। तथा श्रद्धालु गुरु-भक्तों को वह रज सुगन्धित भी जान पड़ती हैं। चरण-रज तीन तरह के होते हैं- 
1. मिट्टी-रूप, 
2. स्वभाविक आभारूप और 
3. ब्रह्म-ज्योतिरूप। 
मिट्टीरूप चरण रज सर्वजन को ज्ञात है। यह स्थूल शरीर के ऊपर लगाने की चीज है। प्रत्येक मनुष्य के शरीर के चारों तरफ शरीर से निकलती हुई नैसर्गिक आभा (वा ज्योति का मंडल) शरीर को घेरे हुए रहती है। यह बात अब आधुनिक विज्ञान से भी छुपी हुई नहीं है। आभायुक्त गुरु मूर्ति के मानस-ध्यान का अभ्यास करने से आभायुक्त गुरु मूर्ति का दर्शन अभ्यासी श्रद्धालु भक्तों को अंतर में मिलता है।

ईश्वर भक्ति | एक ईश्वर सबका | एक ही रास्ता | सत्संग-योग का प्रतिनिधित्व


'सत्संग-योग' मेरा प्रतिनिधित्व करेगा |

ईश्वर एक है और ईश्वर तक पहुँचने के मार्ग भी एक ही है। संसार के सभी तनधारि मनुष्य भक्ति कर सकते हैं। चाहे वे किसी भी देश के हों, किसी भी भेष के हों, किसी भी जाति-धर्म, मजहब, संप्रदाय के हों। भक्ति करने के लिए घरवार, परिवार, रोजगार आदि छोड़ने की भी जरूरत नहीं होती है। अपने पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन करते हुए भगवद्भजन कर सकते हैं। 
संसार के सभी संतों ने साधना-तपस्या करके देख ली और तब उन्हौंने निष्कर्ष निकाला कि भक्ति करने के एकमात्र सरल साधन- विन्दु-ध्यान और नाद ध्यान है।
वेद कहता है- 'नानयः पंथा:।' न अन्यः पंथा: अर्थात कोई दूसरा रास्ता नहीं है। 'तपसः परस्तात्' अर्थात अंधकार के परे प्रकाश में चलो और शब्द को पाओ। यही खुदा या परमात्मा के पास जाने का रास्ता है, अन्य दूसरा रास्ता नहीं है। ईश्वर-कृत जो रास्ते हैं, उनमें परिवर्तन नहीं होता है पर मानव कृत रास्ते बदलते रहते हैं। 
जिस तरह ईश्वर रचित संसार और संसार के सभी मनुष्यों के लिए ईश्वर प्रदत्त शरीर में जो रास्ते जिस काम के लिए है, वही काम होता है, उनमें परिवर्तन नहीं होता है- कान से सुनने का, आँख से देखने का इत्यादि...।
उसी तरह ईश्वर के पास जाने का रास्ता भी एक ही है और वह अंदर का रास्ता है।

द्रौपदी क्यों गिर गयी | कोई न स्थिर सबहिं बटोही | बच्चे जो अनजान होते हैं |

बच्चे जो अनजान होते हैं, तितलियों के पीछे भागते हैं, बड़े लोग इसे देखकर बच्चे को अज्ञानी समझते हैं। हम भी उस बच्चे से कम अज्ञानी नहीं हैं। वह तो तितलियों के पीछे भागता है, जिनमें जान हैं और हम जिनके पीछे भागते हैं, वे सभी- घर, जमीन, दूकान, पैसा आदि जो बेजान हैं।
महर्षि मेँहीँ-पदावली में गुरुदेव (महर्षि मेँहीँ) का वचन है-
कोई न स्थिर सबहिं बटोही।
सत्य शांति एक स्थिर वोही।।
जैसे तितलियों के पीछे भागनेवाले बच्चे को देखकर हम हँसते हैं, उसी तरह संत-महात्मागण संसारी लोगों को देखकर हँसते हैं, जो ज्ञानाभाव के कारण भोगों में मस्त हैं। 

जो गुरुभक्त होने का दम्भ रखते हैं, पर उनकी आज्ञा का पालन नहीं करते हैं, तो गुरु की कृपा कितनी भी बरसती रहे, पर सफलता नहीं मिलेगी।
गुरु-कृपा की धारा तो बह रही है, जिसके अन्दर जितनी क्षमता होती है, पात्रता होती है, उतनी कृपा मिलती है। जिनका हृदय जैसा रहेगा, वैसा ही गुरु की कृपा का प्रकाश फैलेगा। इसलिए गुरु में श्रद्धा रखनी चाहिए और उनकी आज्ञा का पालन करनी चाहिए। जो अपने इष्ट पर एकनिष्ठ रहते हैं, उनका कभी अनिष्ट नहीं होता है। 
याद रखें अन्तर्मार्ग के पथिकों के लिए अहंकार बहुत बड़ा-भारी दुश्मन है। व्यक्ति के अन्दर अनके तरह के मद्द होते हैं, जबतक इन मद्दों को रद्द नहीं करेंगे, तबतक अनहद नहीं मिलेगा और प्रभु का दर्शन नहीं होगा। अतः अहंकार रहित बनें, हृदय को पवित्र व पाक रखें, मन साफ रखें, गुरु युक्ति से भक्ति करें तो सफलता मिलेगी और प्रभु का दर्शन होगा।

परमात्मा को प्राप्त कर परम कल्याण | सच्चे सद्गुरु | सच्ची सद्युक्ति |


साधक स्थूल के केन्द्र पर शब्द को पकड़ता है, उससे खिंचकर सूक्ष्म के केन्द्र पर जाता है। वहाँ केन्द्रीय शब्द को पकड़कर कारण, महाकारण के केन्द्र पर, महाकारण के केन्द्रीय शब्द को पकड़कर कैवल्य के केंद्र पर पहुँच जाता है, वहाँ का शब्द परम प्रभु परमात्मा तक पहुँचा देता है। फिर...

"निज घर में निज प्रभु को पावै, अति हुलसावै ना। 
'मेँहीँ' अस गुरु संत उक्ति, यम-त्रास मिटावै ना।।" 

अपने घर में अपने प्रभु को पा लेता है और सारे दुःखों से छूट जाता है। 

यह अपने अंदर का रास्ता है, बाहर का नहीं। यह मजहब सीना है, सफीना नहीं। यह दिल का दर्द है, कथनी में नहीं आता। वस्तुतः यह करने की चीज है। 

जिनको सच्चे गुरु मिले हैं, सच्ची सद्युक्ति मिली हुई है और जो सदाचार समन्वित होकर सच्ची साधना कार्य करते हैं, उनको अनुभूतियाँ होती हैं और अंत में परम प्रभु परमात्मा को प्राप्त कर अपना परम कल्याण कर लेता है।

गुरु ईश्वर का रूप हैं | Guru is the form of God. | गुरु महिमा |

गुरु ईश्वर का रूप हैं | Guru is the form of God. | गुरु महिमा |

मानव बहुत भटक चुका है, भटक रहा है और ये तबतक भटकता रहेगा, जबतक किसी ज्ञानी गुरु, सत्पुरूषों से मिलकर, उनसे सद्युक्ति प्राप्त कर अपने आत्मस्वरूप की पहचान कर सत्वस्वरूप की पहचान नहीं कर लेता। 

वर्षा प्रायः होती है, किन्तु स्वाति की बूँद कभी-कभी गिरती है। उसी संसार में लोग जन्म लेते रहते हैं और लेते रहेंगे; लेकिन संत महापुरूषों का जन्म कभी-कभी, कहीं-कहीं होता है। 

सामान्य जल वर्षा होने से खेती लहलहाती है, किन्तु स्वाती बूंद तो मोती ही बनाती है। उसी तरह सामान्यजन के जन्म लेने जनसँख्या बढ़ती हैं और संत महापुरुष अवतार लेकर वे हीरा-मोती की खेती करते और कराते हैं। 

संत कबीर साहब ने भी खेती की: सतनाम की; 'मन का बैल और सुरत का हरवाहा'। उन्होंने सत्तनाम का बीज बोकर हीरा-मोती उपजाया और मालामाल हो गए। 

हमरे सत्तनाम धन खेती।।
मन के बैल सूरत हरवाहा, जब चाहै तब जोती।
सत्तनाम का बीज बोवाया, उपजै हीरा मोती।।
उन खेतन में नफा बहुत है, संतन लूटा सेंती। 
कहे कबीर सुनो भाई साधो, उलटी पलटी नर जोती।।

याद रखें, संत सद्गुरु कोई वेश-विशेष के कारण नहीं होते; गुरु नाम है ज्ञान का। शब्द का दाव बतलाने वाले आध्यात्मिक गुरु होते हैं और लौकिक गुरु वे होते हैं जो लौकिक विद्या सिखलाते हैं, जिससे हम संसार में आराम से खाये, पिये और रहें। लेकिन शरीर छूटने के बाद का जीवन सुखमय कोसे होगा? इसके लिए आध्यात्मिक गुरु की आवश्यकता है। 
सच्चे संत सद्गुरु कल्पवृक्ष होते हैं। उनके पास श्रद्धावन्त होकर जाने से मनोकामनाएं पूर्ण होती है; अगर आपकी कामना- शुभकामना है, शुभेच्छा है, तो वे उनकी पूर्ति कर देंगे। 

संतवाणी | संतवाणियों के अनुकूल चलें | संतों का भेद और पंडितों का वेद |

कोई भी मनुष्य भक्ति के लिए, वर्णभेद से, जाति-भेद से या देश-भेद से कोई योग्य है वा कोई इसके अयोग्य नहीं है; किन्तु हाँ, आचरण-भेद से योग्य वा अयोग्य अवश्य है। 

यदि मनुष्य में 'संतों का भेद और पंडितों का वेद' दोनों है, तो सोने में सुगंध है। 

भक्ति करने वाले सब भेषों में रहकर भजन कर सकते हैं, नहीं करने वाले किसी भेष में भी रहकर नहीं कर सकते हैं। जो इन्द्रियों के स्वाद में नहीं फंसता वह गृहस्थ होते हुए भी योगी हैं।

कोई भी मनुष्य अच्छा है या बुरा यह उनके कर्म से पता चलता है, उनका रहन-सहन, बोली, व्यवहार कैसा है, इसी से उनके भक्त और अभक्त होने का पता चलता है। चाहे उनका भेष-भूषा कोई भी हो।

प्रत्येक मनुष्य को भीतर से धार्मिक होना चाहिए। मानव शरीर में रहते हुए मानवोचित कर्म ही करना चाहिए। अन्यथा उनमें और अन्य हिंसक योनि वाले शरीरधारियों में क्या अन्तर रह जाएगा। 

धर्म परिवर्तन नहीं, मन परिवर्तन होना चाहिए। 

साधकों के लिए आवश्यक; सादगी और सरलता | प्रतिष्ठा की चाह नहीं | नीच न सोहत मंच पर |

साधकों के लिए आवश्यक है, सादगी और सरलता। प्रतिष्ठा की चाह उनमें नहीं होनी चाहिए।

"नीच न सोहत मंच पर, महि पर सोहत धीर। 
काक न सोहत पाक पर, हंस सजे सर तीर।।"
सद्गुणी व्यक्ति नीचे बैठे रहने पर भी सुशोभित होते हैं, आदर पाते हैं। परन्तु जो सदाचरण-हीन है, वह ऊँचे आसन पर बैठकर भी शोभाहीन ही होता है। जिस तरह कागा के ऊँचे भवन पर बैठ जाने से शोभा नहीं देता है। वह काँव-काँव ही करता रहता है और लोग उसे भगा देते हैं। दूसरी ओर हंस मानसरोवर के किनारे नीचे बैठा रहता है, तब भी वह शोभता है। वह मीती खाता है और दूध में पानी मिला होने पर भी केवल दूध पीता है, पानी को छोड़ देता है। यह संसार जड़-चेतन मिश्रित है, गुण-दोष मिश्रित है। जो ज्ञानवान होते हैं, संतजन होते हैं, वे दूध लेते हैं और पानी छोड़ देते हैं यानी सत्य को ग्रहण करते हैं और असत्य को त्याग देते हैं। 
जल से कमल की उत्पत्ति होती है, पर जल उसे डूबा नहीं सकता है। जल ऊपर उठकर डूबाना भी चाहता है तो कमल ऊपर उठता जाता है और पूरी तरह से खिलकर जल की शोभा को और बढ़ाता है। इसी तरह संसार में रहना चाहिए, दूसरे को अपने सद्गुणों से गुणान्वित करते रहें।
इंसान के लिए कम खाना और गम खाना हितकर है।'
'मन महीन कर लीजिए, तब पिउ आवै हाथ।'
अपने को छोटा बनाइये, अहंकार को त्याग दीजिए, तभी परमात्मा को पा सकते हैं।

एक ईश्वर ही सत्य है | अपनी दुर्गति से बचें | सद्गति प्राप्त करें | इसी जीवन में |

कोई भी लौटकर नहीं आया !

ईश्वर एक है, अनेक नहीं। यह संसार उन्हीं का बनाया हुआ है। हमसब मानव जो यहाँ पर जाति-धर्म, सम्प्रदाय में बंटे हुए हैं, ऊंच-नीच के भेद-भाव से पीड़ित हैं, उन्हीं के संतान हैं। हमसब को एक -न -एक दिन उन्हीं के पास जाना है। हमारे पूर्वज सब -के-सब जा चुके हैं। उनका क्या समाचार है? वे किस हालत में हैं? किस परिस्थित में है? वे किस तरह रह रहें हैं? हमें कुछ भी मालूम नहीं है। वे सब -के -सब यहाँ इस संसार में जब थे तो बहुत कुछ धन-सम्पत्ति इकठ्ठा किए थे, रिश्ते-नाते बनाए, परन्तु सब कुछ यहीं पर छोड़कर चले गए, कुछ भी साथ में लेकर नहीं गए। 
हमसब के असली पिता एक ही है  "परमपिता परमेश्वर"। हमसबको भी एक- न- एक दिन अपने पिता के पास जाना ही है। लेकिन जाकर भी हम उनसे तभी मिल पायेंगे, जब हम उनकी भक्ति इस जीवन में करेंगे, जिस जीवनको हम अभी जी रहे हैं, यही अवसर हमारे पास है। और ये काम मनुष्य-शरीर में ही हो सकता है। भक्ति करने से ही ईश्वर-दर्शन होगा; अन्यथा परमपिता के दर्शन भी नहीं हो पायेंगे। 
अतः बहुत जरूरी है कि हम इस जीवन, जो जीवन हमें अभी मिला हुआ है, अच्छे-अच्छे कर्म करें, भक्ति करें और अपने पिता से जा आनन्द से मिलें, ऐसा करने से हमसब अपने दुर्गति से बच सकते हैं। और सद्गति को प्राप्त कर पायेंगे। यही जीवन का सार है। मानव-जीवन का उद्देश्य है। यही हमारी असली कमाई है। यही हमारे साथ भी जायेगा। इसी से परम पिता खुश होकर हमें अपने हृदय में समाहित कर लेगें। फिर कभी न नाश होने वाले अचल अमर सुख की प्राप्ति हो जायेगी।  क्रमशः...

स्वावलंबी जीवन | हमारा मन, अन्न, तन, वचन, व्यवहार और हमारा हृदय एकदम पवित्र होता चाहिए |


सभी मनुष्य स्वावलंबी जीवन बिताएं। पवित्र कमाई (अपने पसीने की कमाई) करें, उसी से जीवन निर्वाहन करें। सतोगुणी भोजन करें।

पिता की कमाई खानेवाले का खून खराब हो जाता है!

हमारा मन और अन्न दोनों पवित्र होना चाहिए। साथ ही हमारा तन, वचन और व्यवहार भी पवित्र होना चाहिए। इन सबके मूल में जो सबसे जरुरी है, हमारा हृदय तो पवित्र होना ही चाहिए। 

हृदय पवित्र नहीं है तो अपने पिता (परम प्रभु परमेश्वर) की परछाईं की भी अनुभूति नहीं हो पायेगी। 

संतोषी बनें। थोड़े में भी संतुष्ट रहें। मनोविकारों से दूर रहते हुए अपने हृदय में शील, संतोष, क्षमा, नम्रता, आदि उत्तम विचारों को, सात्विक विचारों को धारण करें।

रैन जागि कर ध्यान | कार्य में सफलता के लिए अनिवार्य है | किसी कार्य की सफ़लता के लिए किन पाँच चीज़ों की आवश्यकता होती है?


किसी कार्य की सफ़लता के लिए किन पाँच चीज़ों की आवश्यकता होती है? जानें!
रैन जागि कर ध्यान | भाग-1 
श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण का वचन है कि किसी कार्य की सफलता के लिए पाँच चीजों की आवश्यकता होती है- कर्ता, क्षेत्र, साधन, क्रिया और अज्ञात। 

कर्ता अयोग्य हो और क्षेत्र अनुकूल हो, तो सफलता नहीं मिलेगी। कर्ता योग्य हो और क्षेत्र अनुकूल नहीं हो, तो सफलता नहीं मिलेगी। कर्ता योग्य हो, क्षेत्र अनुकूल हो, किन्तु साधनविहीन हो, तो सफलता नहीं मिलेगी। कर्ता योग्य हो, क्षेत्र अनुकूल हो, साधन संपन्न हो, किन्तु कार्यान्वयन नहीं कर रहा हो, तो भी सफलता नहीं मिलेगी। कर्ता योग्य हो, क्षेत्र अनुकूल हो, साधन संपन्न हो और कार्यान्वयन भी कर रहा हो, तब पाँचवी चीज है- अज्ञात अर्थात प्रभु-कृपा, वह मिल जाती है; फलत: सफलता मुट्ठी में आ जाती है।
पहली बात है कि कर्ता का योग्य होना अनिवार्य है।

परमात्मा कौन है | आत्मा परमात्मा का ज्ञान | परमात्मा का ज्ञान कौन प्राप्त कर सकता है?

ब्रह्म-दर्शनार्थ तीनों पर्दों को पार करना आवश्यक! भाग-3 


हमलोग पुष्प को देखते हैं, परन्तु उसमें व्यापक गंध को नहीं। उसी तरह हम विश्व को देखते हैं, किन्तु विश्व में व्यापक ब्रह्म को नहीं देख पाते।
 
जितनी विद्याएँ हैं, जितने शास्त्र हैं, सभी जूठे हो गए हैं; क्योंकि उसका वर्णन लोग मुँह से करते हैं, परन्तु जो अनंत स्वरूप परमात्मा है, उसका ज्ञान कभी जूठा नहीं होता। 

उस अव्यक्त तत्व को अव्यक्त ही जान सकता है। जैसे हमारी  चौदह इंद्रियों में रूप विषय को आँख ही ग्रहण कर सकती है, शब्द को कान ही ग्रहण कर सकता है; उसी तरह परब्रह्म परमात्मा का ज्ञान हमारी चेतन आत्मा ही ग्रहण कर सकती है।

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा- मैं अव्यक्त हूँ, पर जो अज्ञानी लोग है, मुझे व्यक्त मानते हैं|

भगवान का उत्तम रूप कौन है? भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा; मैं अव्यक्त हूँ, पर जो अज्ञानी लोग है, मुझे व्यक्त मानते हैं। वास्तव में जो मेरा अव्यय, अव्यक्त रूप है, वही उत्तम है। 
भगवान कहते हैं कि क्षर और अक्षर; ये दो पुरुष हैं। इन दोनों को के परे हैं- पुरुषोत्तम, वही मैं हूँ।

ब्रह्म-दर्शनार्थ तीनों पर्दों को पार करना आवश्यक! भाग-2


एक यात्री यात्रा के क्रम में एकबार जंगल चला गया। वहाँ उनकी भेंट एक महात्माजी से हुई। उसने महात्माजी से पूछा  'बाबा! बस्ती कितनी दूर पर दूरी पर है?' महात्मा जी ने उत्तर दिया- 'जैसे ही जंगल पार करोगे बस्ती मिल जाएगी।' चलते-चलते जब उसने जंगल को पार किया, तो उसको शमशान घाट मिला। वह लौटकर आता है और महात्मा जी से कहता है- 'बाबा! आपने तो कहा था कि जंगल पार करने पर बस्ती मिलेगी, पर वहाँ तो शमशान घाट मिला।' महात्मा जी ने उत्तर दिया- 'तुम किसको बस्ती कहते हो? बस्ती तो उसको कहते हैं, जहाँ आकर लोग बसते हैं। शमशान में जाकर जो बसते हैं, उसको कोई उजाड़ नहीं सकता है। असली बस्ती तो वही है, जहाँ बसने पर कोई उजाड़ न सके। तुम जिनको बस्ती करते हो, वह तो उजाड़ है। प्रतिदिन मर-मर कर लोग वहीं, श्मशानघाट में जाकर बसते हैं। इसलिए उसको मैंने बस्ती कहा।

परमात्मा सूक्ष्म है | परमात्म प्राप्ति के उपाय | परमात्म दर्शन | परमात्म भक्ति | परमात्म प्रकाश


ब्रह्म-दर्शनार्थ तीनों पर्दों को पार करना आवश्यक | भाग-1| 

यदि पृथ्वीतल से मिट्टी का एक ढेला लेकर हम आकाश की ऊँचाई में ले जाकर छोड़ दें, तो वह आकाश में तबतक चक्कर काटता रहेगा जबतक वह पुनः पृथ्वी से आकर मिल नहीं जाता। 
अंश जब तक अपने अंशी में मिल नहीं जाता, स्थिरता नहीं आती है। 
यह जीव भी अपने अंशी से भी बिछुड़ जाने के कारण अशांत, बेचैन बना हुआ है। 
यह तब तक शांति प्राप्त नहीं कर सकता, जबतक कि जहाँ से इसकी उत्पत्ति हुई है, वहाँ नहीं पहुँच जाए।
वहाँ पहुँचने के लिए रास्ता अपने अंदर है, कहीं बाहर में भटकने की जरूरत नहीं। इसके लिए 
पहले आज्ञाचक्र से सहस्रदल कमल में जाओ, वहाँ से त्रिकुटि, शून्य, महाशून्य और भँवर गुफा होते हुए सतलोक में पहुँच जाओगे। वहाँ प्रभु का दर्शन हो जाएगा। 
इसके लिए पहले समय खर्च करना होगा, साधन-भजन करना होगा। पहले मानस-जप और मानस-ध्यान लगाना होगा; फिर दृष्टियोग की क्रिया करके एकविन्दुता प्राप्त करना होगा। वह विन्दु तुम्हें प्रकाश में पहुँचा देगा। वहाँ जो शब्द मिलेगा, उस केन्द्रीय शब्द को पकड़कर तुम प्रभु के पास निःशब्द में पहुँच जाओगे।

संसार में रहने की कला | वह आन्तरिक मार्ग पर चल नहीं सकता जिसमें बाल के नोक के बराबर भी...

संसार में रहने की कला!



वह आन्तरिक मार्ग पर चल नहीं सकता!!

सभी मानव एक है। 
मानव में एकता होनी चाहिए। 

इसके इसके लिए देश में आध्यात्मिकता ऊँची और उत्तम होनी चाहिए, सदाचारिता ऊँची और उत्तम होनी चाहिए। 

सामाजिक नीति अच्छी होनी चाहिए। तभी राजनीति भी अच्छी होगी और शान्तिदायक होगी। 

अध्यात्म ज्ञान से ही हम ईश्वर को प्राप्त कर सकते हैं। 

एक बाल के नोक के बराबर भी अगर किसी में पाप की वृति रहेगी, तो वह आन्तरिक मार्ग पर चल नहीं सकता। 

साधक का जीवन पवित्र होना चाहिए। पवित्र जीवन जियें, साधन-भजन करें तो कल्याण होगा।

 
एक नायिका कहती है-

दस्त से मैं यार को खाना खिलाती हूँ। 
प्यास लगने पर उसे पेशाब देती हूँ।।

यहाँ भाषान्तर से अर्थान्तर है; इसे समझना होगा।







साधन जानना और करना नहीं, पुण्य तो हुआ; लेकिन पूरा नहीं | महर्षि मेँहीँ | Maharshi Mehi


साधन जानना और करना नहीं, पुण्य तो हुआ; लेकिन पूरा नहीं |
आपलोगों को जो दीक्षा मिली है, उसे सत्य समझिए। 

केवल सत्य समझ कर संतुष्ट नहीं हो जाइए, उसे काम में लाइए। 

यानी साधन-भजन कीजिए। साधन जानना और करना नहीं, पुण्य तो हुआ; लेकिन पूरा नहीं।




बहुत समय पड़ा है, यही वहम सबसे बड़ा है |

"बहुत समय पड़ा है, यही वहम सबसे बड़ा है।" यह ईश्वर भक्ति के लिए है।  क्योंकि आत्मा का जीवन अनन्त है। इस शरीर की आयु कु...