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सर्प ऊपर से देखने में बहुत ही सुंदर, सतेज और मनोहर हार-जैसा प्रतीत होता है; किंतु उसकी भयंकरता उसके अन्तस्तल में छिपी रहती है। उसका स्पर्श करने वाला प्राणी तड़प-तड़पकर अपनी प्यारी जान गँवा देता है। ठीक इसी भाँति संसार का बहिरंग भी अत्यंत आकर्षक, सुखद एवं सुहावना प्रतीत होता है और इसमें आसक्त होनेवाले, इसको पकड़ने वाले की भी वही उपर्युक्त गति होती है। जैसे पिपासित अज्ञ कुरंग भ्रम-जल को सत्य मान उसे पीने की इच्छा से व्याकुल होकर दौड़ता है और जलाभाव में श्रान्त-क्लान्त एवं निराश होकर उस बालुकामयी भूमि में अपने प्राण गँवाता है, उसी प्रकार संसारासक्त अज्ञजन सुख-प्राप्ति की अभीप्सा से सांसारिक रूप-रसादि को पकड़ने के लिए उन विषयों की ओर दौड़ता है और परिणामस्वरुप अतृप्त रहकर वह अकाल में ही कालकवलित होता है। इस कारूणिक दृश्य को देखकर संतों ने बारंबार पुकार कर कहा- ऐ संसारी जीव! जागतिक भ्रम-सुख के प्रलोभनों में पड़कर तू अपना सत्यानाश मत कर। आँखों को खोल, जरा विचारकर देख, इन विषयों के पीछे पड़कर तूने अपना सर्वनाश कर डाला; किन्तु इतने पर भी अब तक क्या तू पूर्ण संतुष्ट और सुखी हुआ? यदि नहीं, तो अरे मूर्ख! अब भी चेत। जो कुछ तेरी जीवन-पूँजी बची है, उसकी रक्षा कर। साथ ही संत सद्गुरु की सीख मान, उसकी लीक पर चल। क्या तू नहीं जानता कि यह संसार दुस्तर समुद्र है और उसमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, हिंसादि की अविराम तरंगें उठती रहती हैं? इनसे अपना बचाव कर, अपनी पलकों को खोल। ॠषि वाक्य को मान, संत सद्गुरु की शरण ले और अपना परम कल्याण कर।
राधास्वामी साहब ने भवसागर की गम्भीरता बताकर इससे पार होने के लिए सद्गुरु की उपादेयता बताई है-
भवसागर धारा अगम, खेवटिया गुरु पूर।
नाव बनाई शब्द की, चढ़ बैठे कोई सूर।।
भव सागर है गहिरा भारी।
गुरु बिन को जाय सकै पारी।।
-महर्षि संतसेवी परमहंस जी महाराज
(प्रस्तुति: शिवेन्द्र कुमार मेहता)
🙏🌼🌹।। जय गुरु ।।🌹🌼🙏
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