रामचरितमानस एक ग्रंथ है, जिसे लोग भिन्न-भिन्न दृष्टि स देखा करते हों। कोई कहते हैं, रामचरितमानस एक काव्य ग्रंथ है। इसमें चौपाइयाँ, दोहे, छंद, सोरठे आदि में जितनी-जितनी मात्रा होनी चाहिए, उतनी ही मात्रा में बंधे हैं। काव्य के नौ रस के साथ-साथ इसमें अलंकार की भरमार है। उपमा-उपमेय तो डेग-डेग पर भरे पड़े हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी स्वीकार करते हैं-
"नौ रस जप तप जोग विरागा।
ये सब जलचर चारू तड़ागा।।"
गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज कहते हैं- ऐ मेरे मन! यह सुन्दर मनुष्य-रूपी अवसर के बीत जाने पर तुम्हें पछताना पड़गा। इसलिए बड़
भाग और कठिनाई से मिलने वाले इस मानव-शरीर को पाकर आरंभ से ही कर्म, वचन तथा मन से प्रभु की भक्ति करो, हरि-चरणों में मन लगाओ। संसार में हमेशा के लिए नहीं रहोगे। जितने भी शक्तीशली, प्रतापी, बलशाली, धनशाली आये सबके सब खाली हाथ चले गए। इसलिए अपनी होश संभालो, संसार से आसक्तिरहित होकर अपने स्वामी परमात्मा से प्रेम करो। अपने अंदर-अंदर चलो। अनंत सुख को पाओ। परमात्म स्वरूप का दर्शन करो। यही मानव जीवन की उपलब्धी होगी। संभ्रांत मनष्यों का यही कर्त्तव्य है, सच्ची में तभी संभ्रांत कहलाओगे।
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