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शान्ति की प्राप्ति | पूर्ण एकाग्रचित होने पर पूरी शान्ति | शान्ति को प्राप्त करो |

संतमत शान्ति दाता है!

संतमत शान्तिदाता है। 'शान्ति' हृदय की चीज है, बाहरी चीज नहीं। 

बाहरी चीजों में अपने शरीर और संसार सबमें बदली होती है। अदल-बदल में शान्ति नहीं होती है। 

हृदय को मन को शान्त करो। इसके लिए एकाग्रचित होओ। 

पूर्णतः एकाग्रचित होने पर पूरी शान्ति मिलती है, जो शान्ति परमात्मा को है। 

जो इसको पाता है, वह ईश्वरमय हो जाता है। आवागमन छूट जाता है।



शुभ अशुभ कर्मो का बंधन | मन ही बंधन में डालता है और मन ही मुक्ति दिलाता है | आध्यात्मिक ज्ञान

दीपक लै कुएँ पड़े | 

मन ही बंधन में डालता है और मन ही मुक्ति दिलाता है।


मन जानता है कि बुरे कर्म का फल बुरा मिलेगा, फिर भी कर लेता है और पीछे पश्चाताप करता है। 

जो अनजाने में कोई गलती कर बैठता है, तो उसकी बात कुछ और है, पर जो जानकर गलतियाँ करता है, उसका फल तो उसे भोगना ही पड़ेगा।

भगवान बुद्ध ने कहा है- 'पाप करते समय लोगों को वह शहद की तरह मीठा लगता है, पर जब उसका फल मिलता है, तो व्यक्ति आग में जलने की तरह छटपटाता है।'

All men must die | संसार का सुख कब तक |


आपने नई उम्र में क्यों साधुवेश लिया?


मेरी जब नयी उम्र थी, तब घर-बार छोड़कर साधुरूप धारण कर लिया था। 

लोगों ने मुझसे पूछा कि आपने नई उम्र में क्यों साधुवेश लिया? 

मैंने कहा- 'मैं अंग्रेजी में पढ़ता था। उसमें प्यारी चरण मुखर्जी की लिखी हुई एक पुस्तक थी, जिसका नाम था- First Book of Reading. आरम्भिक अंग्रेजी शिक्षा के देने के लिए यह एक किताब थी। उसमें लिखा था- 'All men must die.' 

इसी वाक्य ने अंकुश का काम मेरे लिए किया। जैसे अंकुश की मार से हाथी सचेत हो जाता है, उसी तरह मैं भी सचेत हो गया। संसार का सुख तबतक है, जबतक मृत्यु नहीं हुई है। महर्षि मेँहीँ परमहंस 

इस जीवन के बाद और क्या होगा? | संसार का प्रबंध | जीवन में सुखी |

इस जीवन के बाद और क्या होगा?


अपने जीवन में सुखी रहने के लिए लोग संसार का प्रबंध करते हैं, यह भी डर रखो कि इस जीवन के बाद और क्या होगा? 

केवल शरीर को जला देने से ही काम समाप्त नहीं हो जाता, शरीर छूटने पर वह अपने कर्म के अनुकूल लोक में जाते हैं- पितृलोक, ब्रह्मलोक या नरक; जैसा कर्म किया है उसके अनुकूल। 

फिर उसको भोगकर इस संसार में आता है। गाड़ी के पहिया के समान उलट-पुलट होता रहता है। 

प्रत्येक बार के जन्म में दुःख-सुख होता रहता है। ब्रह्मा के धाम में जाओ तो भी कर्मफल नहीं छूटता। इस प्रकार आवागमन का कष्ट लगा रहता है।

संसार में एक जीवन के लिए प्रबंध करते हैं, किंतु इस एक जीवन के बाद फिर क्या होगा, इसके लिए भी करो। महर्षि मेँहीँ परमहंस 

भगवान श्रीकृष्ण का महावाक्य | असत्य का अस्तित्व नहीं और सत्य का अभाव नहीं | आध्यात्मिक ज्ञान |

भगवान श्रीकृष्ण का महावाक्य है- 

नासतो विद्यतेभावो नभावो विधते सतः।

असत्य का अस्तित्व नहीं और सत्य का अभाव नहीं।


यह जीवात्मा सत्य है और वह परमात्मा सत्य है। 

इस आत्मा को उस परमात्मा के साथ जोड़ देना, सत् को सत् के साथ मिला देना सत्संग है; किंतु यह बहुत ऊँची बात है। 

जिस दिन ऐसा सत्संग हो जाएगा, हमारा अहोभाग्य हो जाएगा।
 

आशा से मत डोल रे | झूठ मुठ खेले सचमुच होय | आध्यात्मिक सत्संग ज्ञान |


हमारे गुरुदेव कहा करते थे-

"झूठ मुठ खेले सचमुच होय।
सचमुच खेलै बिरला कोय।।
जो कोई खेलै मन चित लाय।
होयते होयते होइये जाय।।" 

बंगाल के संत श्री रामकृष्ण परमहंस देव जी महाराज ने कहा है कि धर्म के राज्य में सबको पुस्तैनी किसान बनकर रहना चाहिए। जो पुस्तैनी किसान है, वह बारह बरस तक फसल नष्ट होने पर भी खेती का काम नहीं छोड़ता, लेकिन जो वंश-परम्परा से किसान नहीं है, मुनाफे के लोभ में पड़कर खेती करता है, वह एक साल फसल नुकसान होते ही खेती का काम छोड़ बैठता है। सच्चे श्रद्धालु भक्त इस श्रेणी के नहीं होते; वे जीवनभर भगवान के दर्शन नहीं होने पर भी साधन करना नहीं छोड़ते। अर्थात वे जीवनपर्यन्त साधना करते रहते हैं। 

संत कबीर साहब साधक के हृदय में सत्साहस का संचार करते हैं और ढाढस देते हुए कहते हैं--
'आशा से मत डोल रे तोको पीव मिलेंगे।'

रामचरितमानस | मनुष्य शरीर की विशेषता क्या है | इस शरीर रूपी नाव के नाविक कौन |

मनुष्य-शरीर की विशेषता क्या है? 
गुरुनानकदेवजी कहते हैं--
"नहिं ऐसो जनम बारंबार। 
का जान्यो कछु पुण्य परगट्यो,  तेरो मानुषावतार।। 
घटत छिन छिन बढ़त पल पल, जात न लागत बार।
वृक्ष ते फल टूटि पड़ि हैं, बहुरि न लागत डार।।"
जैसे वृक्ष से फल गिर जाए, तो कितना ही प्रयास करे, वह फिर उस डाल से जुड़ता नहीं। उसी तरह हमारे जीवन का जो अंश चला गया, वह जुड़ेगा नहीं। 'घटक छिन-छिन बढ़त पल-पल' का मतलब है कि पल-पल उम्र बढ़ रही है और छन छन आयु घट रही है। इस प्रकार उम्र बढ़ती जाती है आयु घटती जाती है। घटते-घटते एक दिन जीवन-लीला समाप्त हो जाती है।

इस शरीर-रूपी नाव के नाविक कौन? 

भगवान राम कहते हैं-
"करनधार सद्गुर ढृढ़ नावा।
दुर्लभ साज सुलभ करि पावा।।"
शरीर-रूपी नाव के नाविक संत सद्गुरु हैं। हमें मनुष्य का शरीर मिल गया है। प्रभु की कृपा मिल गई है। खोजने से गुरु भी मिल जाते हैं। इतना होने पर भी यदि कोई भव-सागर पार नहीं होता है, तो वह कृत निंदक है, उसे आत्महत्या का पाप लगेगा।

रामचरितमानस | नरतन में सुर दुर्लभता की क्या बात रही | आध्यात्मिक विचार


अब समझिए कि उस एक करोड़ के घोड़े की सेवा करने वाला भी मनुष्य ही होगा। कितने लोग भीख मांगते-फिरते हैं-- बाबू! एक पैसा दे दो। फिर नरतन में सुर-दुर्लभता की क्या बात रही? वास्तविक बात तो यह है कि एक करोड़ रुपए का घोड़ा हो या पचहत्तर हजार का कुत्ता, भगवद्-भजन करके भवसागर से छूट नहीं सकता, किंतु भीख मांगने वाला ही क्यों न हो, यदि उसे क्रिया बतला दी जाए, तो साधना करके वह त्रय तापों से, भवसागर के आवागमन से छूट सकता है।

नरतन में सुर दुर्लभता की क्या बात रही | भाग-2

सन्त साधना की पूरी अनुभूति का वर्णन रामचरितमानस में है। जो सर्वजनकल्याण के लिए है। इसमें लोक-व्यवहार के सदाचारपूर्ण नैतिक उपदेश का भी समावेशन है। इसका अध्ययन-मनन करके लोक-व्यवहार को सहित भक्ति को जाना जा सकता है और अपना लोक-परलोक को कल्याणमय बना सकते हैं। हर मानव की सार्थकता भी इसी में है। 


रामचरितमानस | श्रवण-मनन | ज्ञान | संभ्रांत परिवार के लोग आपस में किस तरह व्यवहार करते हैं!

रामचरितमानस एक ग्रंथ है, जिसे लोग भिन्न-भिन्न दृष्टि स देखा करते हों। कोई कहते हैं, रामचरितमानस एक काव्य ग्रंथ है। इसमें चौपाइयाँ, दोहे, छंद, सोरठे आदि में जितनी-जितनी मात्रा होनी चाहिए, उतनी ही मात्रा में बंधे हैं। काव्य के नौ रस के साथ-साथ इसमें अलंकार की भरमार है। उपमा-उपमेय तो डेग-डेग पर भरे पड़े हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी स्वीकार करते हैं- 
"नौ रस जप तप जोग विरागा।
 ये सब जलचर चारू तड़ागा।।"

गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज कहते हैं- ऐ मेरे मन! यह सुन्दर मनुष्य-रूपी अवसर के बीत जाने पर तुम्हें पछताना पड़गा। इसलिए बड़
 भाग और कठिनाई से मिलने वाले इस मानव-शरीर को पाकर आरंभ से ही कर्म, वचन तथा मन से प्रभु की भक्ति करो, हरि-चरणों में मन लगाओ। संसार में हमेशा के लिए नहीं रहोगे। जितने भी शक्तीशली, प्रतापी, बलशाली, धनशाली आये सबके सब खाली हाथ चले गए। इसलिए अपनी होश संभालो, संसार से आसक्तिरहित होकर अपने स्वामी परमात्मा से प्रेम करो। अपने अंदर-अंदर चलो। अनंत सुख को पाओ। परमात्म स्वरूप का दर्शन करो। यही मानव जीवन की उपलब्धी होगी। संभ्रांत मनष्यों का यही कर्त्तव्य है, सच्ची में तभी संभ्रांत कहलाओगे।

बहुत समय पड़ा है, यही वहम सबसे बड़ा है |

"बहुत समय पड़ा है, यही वहम सबसे बड़ा है।" यह ईश्वर भक्ति के लिए है।  क्योंकि आत्मा का जीवन अनन्त है। इस शरीर की आयु कु...